आज हम Chandra Shekhar Azad Jayanti, Chandra Shekhar Azad Ke Bare Mein, के बारे में जानेंगे, आज हम उनकी जयंती के बारे में सभी जानकारी प्राप्त करेंगे. तो चलिए इस पोस्ट को शुरू करते है.
Contents
- 1 Chandra Shekhar Azad Jayanti
- 2 Chandra Shekhar Azad Ke Bare Mein
- 3 Chandra Shekhar Azad Ki Jivani
- 4 अदालत में जब पेश हुए
- 5 सशस्त्र क्रांति का मार्ग
- 6 खजाना लूटने की योजना
- 7 हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ
- 8 अन्याय स्वीकार नहीं
- 9 साधु के छद्म वेश में
- 10 सांडर्स की हत्या
- 11 बम धमाका
- 12 दयालुता की प्रतिमूर्ति
- 13 संघर्ष और मृत्यु
Chandra Shekhar Azad Jayanti
क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 ई. को मध्यप्रदेश की झाबुआ तहसील के भाबरा गाँव में हुआ था, इस वजह से इनके जन्म दिन पर ही इनकी जयंती मनाई जाती है,
Chandra Shekhar Azad Jayanti 2021 = 23 जुलाई 2021

Chandra Shekhar Azad Ke Bare Mein
विख्यात क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 ई. को मध्यप्रदेश की झाबुआ तहसील के भाबरा ग्राम में हुआ था। उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के बदरका गांव के निवासी थे.
उनके पिता श्री सीताराम तिवारी रोजगार की तलाश में भांवरा गए और फिर वहीं बस गए थे। चंद्रशेखर की बाल्यावस्था गांव में ही गुजरी थी। उनके पिता को महज पांच रुपए मासिक पारिश्रमिक प्राप्त होता था.
इस कारण उनके पिता चाहते थे कि चंद्रशेखर भी कोई कार्य करके परिवार चलाने में उनकी मदद करें। किंतु नियति ने उनके कदमों को मुंबई की तरफ मोड़ दिया, जहां उन्होंने कुछ माह खलासी का कार्य किया.
लेकिन फिर वे संस्कृत पढ़ने के लिए वाराणसी आ गए। नि:शुल्क शिक्षा व भोजन के इंतजाम के पश्चात् उन्होंने संस्कृत का अध्ययन करना आरंभ कर दिया। इसी दौरान गांधीजी ने असहयोग आंदोलन आरंभ कर दिया।
चंद्रशेखर भी उससे प्रभावित हुए और आंदोलन में शामिल हो गए। उन्हें पहली बार विदेशी शस्त्रों व शराब की दुकानों पर धरना-प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार किया गया। इस गिरफ्तारी के पश्चात् की घटनाओं का विवरण देने से पूर्व उनकी व्यक्तिगत जिंदगी पर भी दृष्टि डाल ली जाए। सबसे पहले तो उनके पिता के बारे में जानना उचित होगा.
Chandra Shekhar Azad Ki Jivani
व्यक्ति अपने कृतित्व से महानताएं दर्ज कर सकता है लेकिन प्रारब्ध के रूप में व्यक्ति का जन्मकालीन स्थितियों पर वश नहीं चलता। पं. सीताराम ने एक के पश्चात् एक तीन शादियां की थीं।
तीसरी पत्नी माता जगरानी देवी से चंद्रशेखर का जन्म हुआ। परिवार मजदूरी करके गुजर-बसर करता था। सीताराम गरीब होने पर भी शीघ्र नाराज हो जाने वाले और दुराग्रही स्वभाव के व्यक्ति थे।
एक दफा उनकी पहली पत्नी अपने मायके गई। कुछ समय बाद वह पत्नी को लेने अपनी ससुराल गए। पत्नी के भाई ने उनसे कहा, “कुछ दिन रुक जाइए।” तब सीताराम ने अपनी पत्नी को आदेश दिया, “घर चलो।” पत्नी ने अपने भाई द्वारा किए अनुरोध को दृष्टिगत रखकर कहा, “चंद दिन ठहर जाते हैं।”
पं. सीताराम रुके नहीं, नाराज होकर अपने गांव चले आए और दूसरी शादी कर ली। यह बेहद अप्रत्याशित बात थी। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव का त्याग नहीं कर सकता। पं. सीताराम ने भी दूसरी शादी के पश्चात् पहली पत्नी को कभी अपनी जिंदगी में नहीं आने दिया।
लेकिन दूसरी पत्नी का सुख भी स्थायी नहीं रहा और उसकी मृत्यु हो गई। फिर उनके पिता ने तीसरा विवाह किया था और चंद्रशेखर इसी शादी की संतति थे। लेकिन ऐसे पिता के साथ चंद्रशेखर का निर्वाह होता भी कैसे? वे पहले मुंबई गए और फिर वाराणसी। अब बात पुन: गिरफ्तारी के बाद की करते हैं।
अदालत में जब पेश हुए
गिरफ्तारी के बाद पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर उन्हें पारसी मजिस्ट्रेट श्री खरेघाट की अदालत में हाजिर किया गया। वहां पूछे जाने पर उन्होंने स्वयं का नाम ‘आजाद‘ व अपने पिता का नाम ‘स्वाधीनता‘ तथा निवास स्थान’जेल‘ बताया। खरेघाट ने झुंझलाकर चंद्रशेखर को पंद्रह बातों की सजा सुना दी। बेंतों की सजा बेहद दर्दनाक सजा है। बेंत नंगे नितंबों पर मारे जाते हैं।
इस स्थान की कोमल त्वचा बेंत के प्रत्येक वार पर उधड़ जाती है। खून भी रिसने लगता है। लेकिन निडर चंद्रशेखर प्रत्येक बेंत लगने पर ‘भारत माता की जय’ व ‘महात्मा गांधी की जय’ का उद्घोष करते रहे।
उन दांतों के निशान उनकी आत्मा व जिस्म पर जीवन भर बने रहे। उनके नाम के आगे ‘आजाद‘ उपनाम तभी से जोड़ दिया गया। उनका विश्वास था, ” हम आजाद हैं, आजाद रहेंगे और आजाद ही मरेंगे।”
सशस्त्र क्रांति का मार्ग
सत्याग्रह आंदोलन को बंद किए जाने के कारण कई सत्याग्रहियों को क्रांति पथ को अपनाना पड़ा था, क्योंकि गांधीजी ने आंदोलन बंद करने के परिणामों पर विचार किए बिना ही ऐसा किया था। इससे अनेक राष्ट्रभक्तों को भारी निराशा और दुख हुआ। चंद्रशेखर आजाद ने गांधीजी का सत्याग्रह व अहिंसा का मार्ग छोड़ दिया और मातृभूमि को आजाद कराने के लिए सशस्त्र क्रांतिकारियों का पथ अपना लिया।
चंद्रशेखर सदाचारी, निडर, दुस्साहसी और शक्तिशाली युवक थे। वह क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और अपने गुणों के कारण जल्दी ही ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ‘ नामक क्रांतिकारी दल के सैनिक विभाग के अध्यक्ष बन गए।
खजाना लूटने की योजना
क्रांति की प्राथमिक आवश्यकता हथियार ही होती है। हथियार खरीदने के लिए धन चाहिए था। मांगने से धन मिला नहीं, अतः क्रांतिकारियों ने राजनीतिक डकैतियां डालनी आरंभ की। लेकिन इसका नतीजा नकारात्मक रहा। धन तो कम ही मिला। लेकिन सरकार को यह प्रचार करने का अवसर मिल गया कि क्रांतिकारी तो डाकू और लुटेरे हैं।
तब सरकारी खजानों को लूटने की योजना विकसित की गई, जो उन स्थितियों में ज्यादा सटीक थी। क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी स्टेशन के करीब सहारनपुर लखनऊ यात्री गाड़ी में से सरकारी खजाना लूट लिया था। उस दल के नेता पंडित रामप्रसाद बिस्मिल थे। चंद्रशेखर आजाद भी उस दल में शरीक थे।
उस वक्त उनकी उम्र महज 16 वर्ष ही थी। क्रांति पथ को हथियारों से प्रशस्त करने के उद्देश्य से डाली गई डकैती की यह योजना पूर्णतया सफल साबित हुई। क्रांतिकारी महज आधे घंटे में ही सरकारी खजाना लूटने के पश्चात् फरार हो गए।
एक माह तक किसी का कोई सुराग न मिला। किंतु सुराग न छूटने की हिदायत मिलने के बाद भी एक क्रांतिकारी जल्दबाजी में अपनी एक चादर वहीं छोड़ आया। उस चादर पर बने धोबी के निशान से खोज करते हुए पुलिस ने छापा मारकर कुछ लोगों को गिरफ्तार किया।
उनमें से एक ने पुलिस द्वारा दी गई यातनाओं से डरकर पूरा भेद खोल दिया। नतीजा यह रहा कि कुछ ही दिन में आजाद, राजेंद्र नाथ लाहिड़ी और अशफाकउल्ला के अलावा तमाम वांछित क्रांतिकारी पकड़े गए। आजाद भागकर झांसी चले गए और वहां हरिशंकर के नाम से मोटर मैकेनिक और मोटर चालक के रूप में अज्ञातवास करते हुए दिन गुजारने लगे-आजाद वेश बदलने में माहिर थे।
हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ
उनकी मुलाकात झांसी में ही मास्टर रुद्रनारायण सिंह, भगवानदास माहौर, सदाशिव व मलकापुरकर और विश्वनाथ वैशंपायन से हुई। वे सभी क्रांतिकारी थे। छिपकर रहते हुए चंद्रशेखर आजाद शस्त्र संग्रह और क्रांतिकारी संगठन बनाने में लगे रहे।
फिर उन्होंने अपने दल का नाम ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ‘ रख लिया। उस वक्त यह दल उत्तर भारत का सर्वाधिक वृहद क्रांतिकारी संगठन के रूप में जाना जाता था। किंतु गोरी हुकूमत भी इस तथ्य से बखूबी वाकिफ थी।
अन्याय स्वीकार नहीं
उनका बहुआयामी व्यक्तित्व न्याय का पक्षधर था। चंद्रशेखर आजाद मातृभूमि की आजादी के लिए समर्पित क्रांतिकारी ही नहीं थे अपितु कहीं भी अन्याय होते देख पीड़ित पक्ष की मदद करने का पूरा प्रयास करते थे।
शरीर में पर्याप्त शक्ति और जेब में आग्नेयशास्त्र रहने से उनका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर रहता था। जरूरत पड़ने पर वह सामान्य मामलों को तो शक्ति बल से ही सुलटा लेते थे।
साधु के छद्म वेश में
ब्रिटिश हुकूमत के भेदिए सक्रिय थे और उन्हें पूर्ण मनोयोग के साथ तलाश कर रहे थे। आजाद को भी पता था कि एक ही स्थान पर ज्यादा समय तक टिके रहने से उनकी असलियत खुल सकती है। इस कारण वह स्थान परिवर्तन तो खैर करते ही थे,
उनके द्वारा अपना हुलिया भी तब्दील कर लिया जाता था पुलिस से बचने हेतु एक बार तो वह ओरछा राज्य जा पहुंचे और वहां उन्होंने नदी तट पर एक कुटिया बनाकर साधु वेश धरकर रहना आरंभ कर दिया था। गुप्तचर व भेदियों के साथ उनका ‘तू डाल-डाल, मैं पात पात’ का खेल लंबे समय तक इसी प्रकार जारी रहा था।
सांडर्स की हत्या
अंग्रेजों ने उस समय दमन चक्र तीव्र कर दिया था, जब सन् 1928 के अक्टूबर में लाहौर स्टेशन पर भीड़ ने साइमन कमीशन का विरोध किया। भीड़ पर पुलिस ने लाठियां भांजी। उसमें पंजाब केसरी लाला लाजपतराय बुरी तरह जख्मी हो गए थे और उन्हीं चोटों के कारण एक माह में ही चल बसे क्रांतिकारियों ने उस हत्या का प्रतिकार लेने का मन बना लिया।
जिस दल को लाहौर के पुलिस अधीक्षक स्कॉट को गोली मारने का कार्य सुपुर्द किया गया था उसमें भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व राजगोपाल के साथ चंद्रशेखर आजाद भी शरीक थे।
उनका काम यह था कि यदि स्कॉट को गोली मारने के पश्चात् पुलिस का कोई व्यक्ति क्रांतिकारियों का पीछा करे तो आजाद उसे मौत के घाट उतार दें। स्कॉट उस दिन किसी वजह से दफ्तर नहीं पहुंचा।
उसके बजाय पुलिस उप अधीक्षक सांडर्स राजगुरु व भगत सिंह की गोलियों से मारा गया। एक थानेदार चाननसिंह ने भगत सिंह व राजगुरु को पकड़ने का प्रयास किया तो आजाद ने उसे भी खत्म कर दिया। उसके पश्चात् वह एक कीर्तन मंडली के सदस्य बनकर रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठकर भजन-कीर्तन करते हुए फरार हो गए।
बम धमाका
नई दिल्ली में 8 अप्रैल, 1929 के दिन केंद्रीय विधान सभा में भगतसिंह व बटुकेश्वर दत्त ने जो दो बम फेंके, उनकी योजना भी चंद्रशेखर आजाद ने ही तैयार की थी। योजना का मकसद किसी सरकारी अधिकारी को कत्ल करना नहीं, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारतवासियों के रोष को संसार के समक्ष जाहिर करना था।
उस बम विस्फोट कांड के पश्चात् क्रांतिकारी समुदाय भारतीय प्रजा में बेहद जनप्रिय हो गया। भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव व राजगुरु के चित्र हर घर में टंगने लगे। धनी लोग भी क्रांति कार्यों के लिए चंदा देने लगे थे।
दयालुता की प्रतिमूर्ति
मानवोचित गुणों के बिना कोई भी शख्स महान उद्देश्य में संलिप्त नहीं हो सकता। उनकी दयालुता का गुण इस घटना से जाहिर हो जाता है। सांडर्स की हत्या करने के बाद चंद्रशेखर आजाद पुलिस की गिरफ्त में नहीं आ सके।
उनके सिर पर तब 7500 रुपए का इनाम रखा गया। उस दौरान एक बार उन्हें पुलिस से बचने के लिए एक ऐसे घर में पनाह हासिल करनी पड़ी, जिसमें एक वृद्धा मां व उसकी युवा बेटी रहती थीं। उन्होंने यह जानते हुए कि पुलिस चंद्रशेखर आजाद के पीछे लगी है, उन्हें पनाह दी।
वार्तालाप के दरम्यान आजाद को मालूम पड़ा कि वृद्धा अपनी बेटी की शादी को लेकर चिंतित है। बिना दहेज कोई बढ़िया वर नहीं मिल पा रहा था। दहेज के लिए धन का प्रबंध भी नहीं हो पा रहा था। आजाद के पास उस वक्त रुपयों की थैली थी। किंतु वह पार्टी का धन था।
उन्होंने सुझाव दिया कि उनकी गिरफ्तारी पर हुकूमत ने 7500 रुपए का इनाम रखा है, वह इनाम उन्हें गिरफ्तार करवाने वाले को पुलिस द्वारा दिया जाएगा, अतः यदि वृद्धा चाहे तो उन्हें गिरफ्तार करवाकर 7500 रुपए प्राप्त कर सकती हैं।
वृद्धा ने इस तरह धन लेने से स्पष्ट मना कर दिया। तब आजाद ने पार्टी के धन में से कुछ धन उस ‘बहिन’ की शादी के लिए एक पत्र के साथ रखा और उन दोनों के उठने से पूर्व ही घर से निकल पड़े। वह इस हद तक शालीन थे कि मदद करने के पश्चात् मदद पाने वाले के शुक्रिया करने से पूर्व ही रुखसत हो जाते थे।
संघर्ष और मृत्यु
चंद्रशेखर आजाद सन् 1931 में 27 फरवरी के दिन इलाहाबाद में अल्फ्रेड पार्क में एक क्रांतिकारी साथी सुखदेव राज के साथ बैठे क्रांति की किसी योजना पर चर्चा कर रहे थे। एक मुखबिर ने पुलिस अधीक्षक नाटबाबर को इसकी जानकारी दे दी।
नाटबाबर ने भारी संख्या में पुलिस लेकर अल्फ्रेड पार्क की चारों तरफ से घेराबंदी कर ली। उसके पश्चात् वह खुद सीधा चलता हुआ चंद्रशेखर आजाद के पास पहुंचा और बिना किसी पूर्व चेतावनी के आजाद पर गोली दाग दी।
गोली आजाद की जांघ पर लगी। घायल आजाद ने खिसककर एक वृक्ष की ओट ले ली और पिस्तौल से नाटबाबर पर गोली दागी, जो नाटबाबर की कलाई पर लगी।
आजाद ने सुखदेवराज को हुक्म दिया कि मैं तो जख्मी होने की वजह से भागने में नाकाम हूं, किंतु तुम यहां से निकल जाओ। सुखदेवराज आजाद को यूं छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, किंतु वहां रहकर पकड़े जाने से भी कोई मकसद हल नहीं होना था।
अत: वह वहां से मायूस होकर चले गए। उसके जाने के बाद चंद्रशेखर आजाद ने सोच लिया कि उन्हें क्या करना है। आजाद की माउजर पिस्तौल में कुछ ही गोलियां थीं। उनसे पुलिस की राइफलों का मुकाबला नहीं किया जा सकता था।
तथापि आजाद का निश्चय था कि वह जीते जी हर्गिज नहीं पकड़े जाएंगे। जब तक गोलियां रहीं, तब तक वह पुलिस पर गोलियां दागते रहे। जब आखिरी एक गोली बची, तब आजाद ने पिस्तौल की नली अपनी कनपटी पर रखी और लिबलिबी दबा दी।
पुलिस के हाथों गिरफ्तारी और उसके पश्चात् की यातनाओं और प्रताड़नाओं से बचे रहने का उनका निश्चय उस गोली ने पूर्ण कर दिया।
आजाद अपने अन्य साथी क्रांतिकारियों की अपेक्षा कम पढ़े-लिखे थे, किंतु मानवीय गुणों का जैसे उनमें खजाना ही भरा था। इसी वजह से क्रांतिकारियों के मध्य वे नेता की भांति सम्मान प्राप्त करते थे।
तो आज आपने जाना Chandra Shekhar Azad Ke Bare Mein, अगर पोस्ट अच्छी लगी तो शेयर जरुर करे, और इसको शेयर भी जरुर करे
Leave a Reply